जाहिर है हिमाचल से राज्यसभा की यात्रा ने एक सरकार के वजूद को छील दिया और इस छिछालेदर में सारी खुन्नस निकल गई। राजनीति अपनी बस्ती नहीं चुन सकती, तो अपनी ही अस्थि उठानी पड़ेगी, वरना भाजपा के कुल 25 विधायकों के सामने कांग्रेस के चालीस इतने सक्षम थे कि अभिषेक मनु सिंघवी यहां से राज्यसभा का तिलक लगाकर लौटते, मगर लुटिया डूबी जहां आशाएं तैर रही थीं। इस गिनती पर कौन भरोसा करे जिसने भाजपा के हर्ष में अपनी तौहीन कबूल की। आश्चर्य यह कि जिस अकड़ से सत्ता चल रही थी, उसकी हड्डी पसली एक कर दी, लेकिन आत्मबोध का आचरण खुद को साबित नहीं कर सका।
सुलगती सूलियों को तिनके समझकर, कांग्रेस ने अपने ही हाथों को जलाया इस कद्र। ऐसे में भाजपा का जीतना जनादेश की गवाही नहीं, लेकिन कांग्रेस का हारना जगहंसाई जरूर है। कौनसा शिखर और कौनसी तोपें थीं इस दुर्ग की, कयामत घर से निकली और सारे गुरूर को जला गई। ऐसे में गलत कौन? जनता जिसने कांग्रेस को सत्ता सौंपी या व जो बागी हो गए। क्यों न इस सल्तनत को दोषी मानें जो हिमाचल में निरंकुश और दिल्ली में अंधी थी। कब कांग्रेस अपनी हैसियत से ‘आलाकमान’ की हेकड़ी से बाहर नेतृत्व का कौशल दिखा पाएगी। यहां वह नेतृत्व भी हारा जिसने हिमाचल में सुक्खू सरकार का मौजूदा आकार बनाया और वह सत्ता भी हारी जिसने यारों का सहारा बनाया। एक एक करके गिनेंगे तो कितने कैबिनेट रैंक बिखर गए और बिखरा वह असंतुलन जो हिमाचल में कांग्रेस को संगठित नहीं कर पाया। आश्चर्य यह कि मुख्यमंत्री के गृह जिला से तीन विधायकों ने बगावत की, तो अपनी ही पार्टी को हराने में सुधीर शर्मा व राजिंद्र राणा ने शहादत दी।
एक आसान सी जीत में अगर सुक्खू सरकार फिसल गई, तो सरकार के असंतुलन ही खा गए सरकार को। ‘चादर फट गई पांव में नाखून बढ़े थे, शहनशाह की किस्ती में छेद बड़े थे।’ अब एक बदसूरत तस्वीर में कांग्रेस का तामझाम और दिल्ली का दरबार खुद को होश में लाने के लिए प्रयासरत है। चोट खाने के बाद दिल का हाल पूछा जा रहा है, अपनी नब्ज को दूसरे हाथ में देकर मापा जा रहा है। यानी छह विधायक छंट गए, विक्रमादित्य सिंह ने मंत्री पद छोड़ दिया और कितने सबूत चाहिएं कि आग किस कद्र लगी है।कांग्रेस को खुद पर भरोसा कब होगा। हिमाचल में सरकार का गठन जिस तरह हुआ, उसमें नालायकी, अहंकार, टकराव और उपेक्षा थी। फैसलों की फेहरिस्त में अपने ही विधायकों के अपमान अगर जुड़ रहे थे, तो कहीं बंदूक के साये सत्ता को अपने नशे की हिफाजत की चिंता थी। पहले मंत्रिमंडल के आकार में और फिर इसके प्रकार में कान ही तो पकड़े गए। जिस कांगड़ा ने दस विधायक दिए, उसका सबसे क्षमतावान चेहरा इतना मजबूर किया कि वह आज सरकार के विरुद्ध तलवार बन गया। मंत्रियों को मजदूर और गैर विधायकों को अंगूर खिलाकर आत्मसंतुष्टि तो हो सकती है, लेकिन सरकारें यूं नहीं चलतीं। आश्चर्य यह कि सरकार के बीच खड़े राजिंद्र राणा, सुधीर शर्मा व तमाम विक्षुब्ध विधायकों की न कोई सुन रहा था और न ही सुनना चाहता था। बहरहाल कांग्रेस ‘आलाकमान’ को इतना होश तो आया कि पर्यवेक्षक शिमला की गलियों में अपनी ही सरकार को ढूंढ रहे हैं। जनता ने तश्तरी पर सौंपी थी जो सत्ता, आज उसकी लाज बचाने के लाले पड़े हैं। इस दृश्य में भाजपा थी ही नहीं, लेकिन उसे अगर सियासी धाम परोसी गई, तो कांग्रेस को अब जनता क्यों अपना नसीब सौंपे। जिन्हें इंतकाम लेना था, ले लिया।
जिन्होंने अहंकार में चूर होकर जितनी सरकार चलानी थी, चला ली, लेकिन बहुत कुछ खोना पड़ा हिमाचल को। पहली बार अस्थिरता के दामन में हिमाचल का लोकतांत्रिक विश्वास चकनाचूर हो रहा है। यह वह प्रदेश है जो तीसरी शक्ति को हमेशा पटकनी देता रहा ताकि कांग्रेस बनाम भाजपा के बीच सियासी तासीर सुदृढ़ हो, लेकिन यहां तो यह भ्रम भी टूट गया। सरकार चलाने और बचाने की जिम्मेदारी जिस शख्स के कंधों पर थी, उसने अपने पहले इम्तिहान में ही गठरी खोल दी। कल सरकार का क्या होगा। कांग्रेस इसे बचा भी ले, आगामी लोकसभा चुनाव की दहलीज पर पार्टी को फिसलना पड़ सकता है।